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उत्तराखंड में कक्षा 1 में प्रवेश के लिए अब जरूरी होगी 6 साल की उम्र, अभिभावकों में बढ़ी चिंता

देहरादून/ उत्तराखंड में राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) के तहत एक बड़ा बदलाव लागू किया गया है। अब प्रदेश के सरकारी और निजी दोनों स्कूलों में कक्षा 1 में प्रवेश के लिए बच्चे की न्यूनतम उम्र 6 वर्ष होना अनिवार्य कर दिया गया है। शिक्षा मंत्री डॉ. धन सिंह रावत ने स्पष्ट किया है कि इस नियम में किसी भी प्रकार की छूट नहीं दी जाएगी, और सभी स्कूलों को इसके लिए सूचित किया गया है।

Source Courtesy – Digital Media

मंत्री के अनुसार, यह निर्णय राष्ट्रीय स्तर पर लागू नई शिक्षा नीति-2020 का हिस्सा है, जिसे चरणबद्ध तरीके से पूरे देश में लागू किया जा रहा है। उत्तराखंड इसमें अग्रणी राज्यों में शामिल हो गया है।

क्या है नया नियम?

  • पहली कक्षा में एडमिशन के लिए उम्र कम से कम 6 साल होनी चाहिए।

  • पहले यह आयु सीमा 5 साल थी, जो अब एक साल बढ़ा दी गई है।

  • अगर कोई बच्चा 5 साल 11 महीने 29 दिन का भी है, तो उसे भी कक्षा 1 में प्रवेश नहीं मिलेगा।

  • ऐसे बच्चों के लिए बालवाटिका (pre-school/kindergarten) का विकल्प दिया जा रहा है।

PHOTO – OM JOSHI

इस बदलाव के पीछे तर्क क्या है?

शिक्षाविदों का मानना है कि यह बदलाव बच्चों के समग्र मानसिक, सामाजिक और शैक्षणिक विकास को ध्यान में रखते हुए किया गया है।
नई शिक्षा नीति (NEP 2020) का फोकस 3–6 वर्ष की उम्र को पूर्व-प्रारंभिक शिक्षा (Foundational Learning) के लिए सबसे जरूरी मानता है। इस आधार पर अब “5+3+3+4” संरचना अपनाई गई है, जिसमें पहले पांच साल (3 साल आंगनवाड़ी + 2 साल बालवाटिका/नर्सरी-UKG) की शिक्षा को बुनियादी माना गया है।

फायदे: शिक्षा नीति में बदलाव के सकारात्मक पहलू

  1. बच्चे की परिपक्वता:
    6 वर्ष की उम्र तक बच्चा मानसिक और सामाजिक रूप से कक्षा 1 के लिए ज्यादा तैयार होता है।

  2. बेसिक शिक्षा पर ज़ोर:
    बालवाटिका के माध्यम से भाषा, संख्याओं और सामाजिक व्यवहार की बेहतर समझ विकसित की जाती है।

  3. अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप:
    कई देशों में पहली कक्षा में प्रवेश की उम्र 6 वर्ष या उससे अधिक ही है। भारत भी उसी दिशा में कदम बढ़ा रहा है।

  4. शिक्षा में समानता:
    सरकारी और निजी स्कूलों के लिए एक समान उम्र सीमा से शैक्षणिक असंतुलन को कम करने में मदद मिलेगी।

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चुनौतियां और चिंताएं: अभिभावकों के लिए मुश्किलें भी कम नहीं

  1. यूकेजी पास बच्चों के लिए ब्रेक:
    कई बच्चे जिन्होंने यूकेजी पूरी कर ली है, वे अब एक साल इंतजार करने को मजबूर हो सकते हैं। इससे शिक्षा में एक साल का अंतर पैदा होगा।

  2. अभिभावकों की परेशानी:
    कई माता-पिता अपने बच्चों का भविष्य बर्बाद न हो, इस चिंता में हैं कि वो एक साल स्कूल से दूर रहकर अपनी लय और सीखने की आदत खो बैठेंगे।

  3. निजी स्कूलों का दबाव:
    कुछ निजी स्कूलों में पहले से ही बच्चे 5 साल में कक्षा 1 में प्रवेश पा जाते थे। अब उन्हें अपनी नीतियां और पाठ्यक्रम बदलना होगा।

  4. ग्रामीण क्षेत्रों में जागरूकता की कमी:
    गांवों में कई अभिभावक अभी नई नीति से अनभिज्ञ हैं, जिससे आने वाले समय में भ्रम और विवाद की स्थिति बन सकती है।

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क्या हो सकता है समाधान?

  • सरकार को चाहिए कि बच्चों के लिए अतिरिक्त पूर्व-प्राथमिक शिक्षा सुविधाएं (बालवाटिका केंद्र) बढ़ाए जाएं।

  • अभिभावकों के लिए जागरूकता अभियान चलाना जरूरी है ताकि वे बच्चों को घर में भी सीखने का माहौल दें।

  • जिन बच्चों ने पहले से यूकेजी कर लिया है, उनके लिए एक साल का ब्रिज कोर्स या अंतरिम शिक्षा समाधान प्रस्तावित किया जा सकता है।

सुधार की राह आसान नहीं, लेकिन जरूरी

राष्ट्रीय शिक्षा नीति का उद्देश्य शिक्षा प्रणाली को गुणवत्ता-आधारित और समावेशी बनाना है, लेकिन किसी भी बड़े बदलाव के साथ स्थानीय चुनौतियाँ भी आती हैं। उत्तराखंड में लागू नया नियम बच्चों के विकास की दृष्टि से एक सकारात्मक कदम है, लेकिन इसके प्रभाव को कम करने के लिए लचीली रणनीति और सहानुभूतिपूर्ण कार्यान्वयन की आवश्यकता है।